औरंगाबाद/बिहार
राजनीति में जनता जहां विकास, रोजगार, सड़क, बिजली और सुरक्षा जैसे गंभीर मुद्दों पर चर्चा की उम्मीद लेकर मंच पर पहुंची थी, वहीं नेताओं ने माहौल को ऐसा मोड़ दिया कि सभा मुद्दों की जगह पारिवारिक किस्सों और व्यक्तिगत तंज का अखाड़ा बन गई।
जनता का सवाल, नेता का जवाब –
जनता ने पूछा: “हमारे लिए रोजगार कब आएगा? विकास क्यों ठप है? सड़कें टूटी क्यों हैं? बिजली क्यों जाती है? और सुरक्षा कब मिलेगी?”
नेताओं ने जवाब दिया: “आपके पिताजी… हमारे दादाजी… और आपके परिवार ने तो ये किया था!”
नतीजा यह हुआ कि मुद्दों का जिक्र तो सभा में नाममात्र को ही रहा, बाकी पूरा समय निजी छींटाकशी और धमकी की राजनीति पर निकल गया।
सुशील कुमार सिंह (बीजेपी के पूर्व सांसद):
उन्होंने शुरुआत में तो एनडीए पर दूसरों की गलतियों का बोझ डाले जाने की सफाई दी, लेकिन जब उनकी राजनीति पर कटाक्ष हुआ तो वे भी भावनाओं पर काबू न रख पाए। देखते ही देखते “मैं बताता हूँ…” से लेकर “धमकी” वाली भाषा तक उतर आए।
आनंद शंकर सिंह (कांग्रेस विधायक):
विपक्ष के सवालों को लोकतंत्र का अधिकार बताते हुए वे भी जनता का पक्ष रखने के बजाय उसी खेल में कूद पड़े। उन्होंने सीधे “आपके पिता जी” वाला बयान दे डाला, जिससे माहौल और गरमा गया। लगता था मानो यह किसी राजनीतिक बहस का मंच नहीं, बल्कि मुहल्ले की चौपाल में चल रही पारिवारिक नोकझोंक हो।
जनता की हालत –
जनता हैरान रह गई। वे सोच रहे थे कि यहां से रोजगार और विकास की कोई ठोस योजना सुनने को मिलेगी। लेकिन नतीजा यह हुआ कि लोग ताली पीटकर ठहाके लगाने लगे और कई लोग बड़बड़ाते हुए यह कहते निकले –
“हमको लगा था सड़क और पानी की बात होगी, लेकिन यहां तो वंशावली ही सुनाई जा रही है।”
निष्कर्ष –
औरंगाबाद की राजनीति अब मुद्दों से पूरी तरह भटक चुकी है। नेताओं की जुबानी लड़ाई इस बात का आईना है कि यहां सियासत अब मुद्दों, योजनाओं और जनता की जरूरतों से नहीं, बल्कि व्यक्तिगत छींटाकशी, धमकी और शक्ति प्रदर्शन से आगे बढ़ रही है।
जनता का सीधा सवाल था –
“विकास कहां है?”
नेताओं का जवाब आया –
“पिता जी और दादा जी की बात मत कीजिए।”
अगर यही हाल रहा, तो आने वाले दिनों में जनता का भरोसा सिर्फ नेताओं पर से नहीं, बल्कि पूरी राजनीति पर से उठना तय है।